ज्यों मैं पोछूँ एक आँख को,
त्यों दूजे से रहें निकल।
दुख की बेला में भी आँसू,
करते रहते मुझसे छल।।
जीवन की आपाधापी में,
भाउराव महंत |
संघर्षों का अंत नहीं।
दूर-दूर तक दुख का पतझड़,
सुख का कहीं बसंत नहीं।
तिस पर भी मेरी निर्धनता,
करती मुझको नित्य विकल।।
रोक–रोककर, रोक रहा हूँ,
किंतु निकलते जाते हैं।
नहीं पता मुझको ये निष्ठुर,
आँसू क्यों इतराते हैं।
जितने बल से इनको रोकूँ,
होती उतनी शक्ति-प्रबल।।
जितने आँसू झरते मेरे,
उतना ही दुख बढ़ता है।
इन दुःखों से फिर कविता का,
मुझमें मेघ उमड़ता है।
पीड़ा से जो आह निकलती,
-भाऊराव महंत || काव्य-मंजरी
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