पेज
मुखपृष्ठ
गोपनीयता नीति
अस्वीकृति
प्रशस्ति-पत्र
विशिष्ट सम्मान
प्रेस-विज्ञप्ति
रविवार, 29 नवंबर 2020
कुछ पंक्तियाँ
विकल इस ज़िंदगी के शेष लमहें चंद हो जाएँ।
बढ़ातीं पीर हैं साँसें, स्वतः ये मंद हो जाएँ।
अभी मैं साथ था उसके, अभी तनहाइयों में हूँ-
दिखे वो बंद नयनों से, नयन ये बंद हो जाएँ।
जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध' || काव्य-मंजरी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें