सोमवार, 23 सितंबर 2024

हिन्दी व्याकरण की यात्रा

हिंदी व्याकरण की यात्रा: भाषा और बोली का अंतर

भाषा और बोली के बीच का अंतर समझना हिंदी व्याकरण की नींव है। भाषा एक संरचित व्यवस्था है, जिसका अपना विशिष्ट व्याकरण होता है। यह व्याकरण भाषा को एक निश्चित रूप और नियमबद्धता प्रदान करता है। दूसरी ओर, बोली एक अनौपचारिक संवाद माध्यम है, जिसका कोई निर्धारित व्याकरण नहीं होता। बोली स्थानीय परिवेश और सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होती है, जिससे इसमें लचीलापन आता है।

बोली का भाषा में रूपांतरण एक जटिल प्रक्रिया है। जब कोई बोली विकास के विभिन्न चरणों से गुजरती है और व्यापक स्वीकृति प्राप्त करती है, तब वह धीरे-धीरे भाषा का रूप धारण करने लगती है। इस प्रक्रिया में, बोली को कुछ निश्चित मानदंडों को पूरा करना होता है, जैसे व्यापक प्रयोग, साहित्यिक रचनाओं में उपयोग, और एक समृद्ध शब्द भंडार का विकास। जब बोली इन सभी मान्यताओं को प्राप्त कर लेती है, तो वह एक परिपक्व भाषा के रूप में स्थापित हो जाती है।

हिंदी व्याकरण में 'वर्ण' और 'अक्षर' दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं, जिन्हें अक्सर एक ही समझ लिया जाता है। हालांकि, इन दोनों में सूक्ष्म अंतर है। वर्ण भाषा की ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि अक्षर लिखित रूप में इस ध्वनि को दर्शाता है। अक्षर को एक या अधिक ध्वनियों की सबसे छोटी इकाई के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसका उच्चारण एक ही झटके में होता है।

अक्षरों को मुख्यतः दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है: बद्धाक्षर और मुक्ताक्षर। बद्धाक्षर वे अक्षर हैं जिनकी अंतिम ध्वनि हलंत (्) से युक्त होती है। उदाहरण के लिए, 'श्रीमान्', 'जगत्', और 'परिषद्' बद्धाक्षर के उदाहरण हैं। इन शब्दों में अंतिम व्यंजन का उच्चारण बिना किसी स्वर के होता है। दूसरी ओर, मुक्ताक्षर वे अक्षर हैं जो स्वर ध्वनि के साथ समाप्त होते हैं। 'खा', 'ला', 'पी', 'जा' जैसे शब्द मुक्ताक्षर के उदाहरण हैं।

हिंदी व्याकरण की यह समझ न केवल भाषा के शुद्ध प्रयोग में सहायक है, बल्कि यह भाषा के विकास और उसकी संरचना को समझने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह ज्ञान विद्यार्थियों, लेखकों, और भाषाविदों के लिए अत्यंत उपयोगी है, क्योंकि यह उन्हें भाषा के सूक्ष्म पहलुओं को समझने और उसका सटीक प्रयोग करने में मदद करता है। इस प्रकार, हिंदी व्याकरण का अध्ययन न केवल भाषा की शुद्धता बनाए रखने में सहायक है, बल्कि यह भाषा के समृद्ध इतिहास और विकास को समझने का एक माध्यम भी है

हिन्दी व्याकरण

हिंदी भाषा में ध्वनियों का एक विशिष्ट महत्व है, जो उच्चारण और लेखन दोनों में परिलक्षित होता है। "इ" की ध्वनि का प्रयोग एक विशेष नियम पर आधारित है, जिसे समझना हमारी भाषा की गहराई को समझने में सहायक होता है।

स्पर्श व्यंजन, जिन्हें वर्गीय व्यंजन भी कहा जाता है, वे हैं जिनके उच्चारण में जीभ मुख के किसी भाग को स्पर्श करती है। ये पांच वर्गों में विभाजित हैं:

1. कवर्ग: क् ख् ग् घ् ङ्
2. चवर्ग: च् छ् ज् झ् ञ्
3. टवर्ग: ट् ठ् ड् ढ् ण्
4. तवर्ग: त् थ् द् ध् न्
5. पवर्ग: प् फ् ब् भ् म्

जब "स्" के बाद तुरंत इनमें से कोई व्यंजन आता है, तो "इ" की ध्वनि स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। यही कारण है कि हम "स्कूल", "स्त्री", "स्नान", "स्थायी", "स्पष्ट", "स्पर्धा" जैसे शब्दों में "इ" की ध्वनि सुनते हैं, भले ही वह लिखी न हो।

आपने "स्याही" का उदाहरण दिया, जो एक उत्कृष्ट प्रश्न है। "य्" स्पर्श व्यंजन नहीं है, बल्कि अंतःस्थ व्यंजन है। अंतःस्थ व्यंजन वे हैं जो स्वर और व्यंजन के बीच की ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं। ये हैं य्, र्, ल्, व्। इसलिए "स्याही" में "इ" की ध्वनि नहीं आती।

एक और महत्वपूर्ण बिंदु जो आपने उठाया, वह है ड़ और ढ़ का प्रयोग। ये दोनों वर्ण वास्तव में ड और ढ से विकसित हुए हैं और इनका प्रयोग शब्द के आरंभ में नहीं होता। ये मध्य या अंत में ही आते हैं, जैसे "पढ़ना", "बढ़ना", "गाड़ी", "पीड़ा" आदि। यह नियम हिंदी की ध्वनि संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे समझना शुद्ध उच्चारण और लेखन के लिए आवश्यक है।

हिंदी व्याकरण की ये बारीकियाँ न केवल भाषा की समृद्धि को दर्शाती हैं, बल्कि इसकी संरचनात्मक सुंदरता को भी प्रकट करती हैं। इन नियमों को समझना और उनका पालन करना हमें अपनी मातृभाषा के प्रति और अधिक सम्मान और प्रेम जगाता है। यह ज्ञान हमें न केवल शुद्ध लेखन और उच्चारण में मदद करता है, बल्कि भाषा के इतिहास और विकास को समझने में भी सहायक होता है।

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

भाषाओं का उत्सव: एक भारतीय कहानी

भाषाओं का उत्सव: एक भारतीय कहानी

सूरज की पहली किरणों ने जैसे ही दिल्ली के आकाश को छुआ, वैसे ही रमेश की आंखें खुल गईं। आज हिंदी दिवस था, और उसे अपने कॉलेज में एक भाषण देना था। वह उत्साहित था, लेकिन साथ ही थोड़ा चिंतित भी। उसने अपने भाषण को एक बार फिर से पढ़ा, जिसमें वह हिंदी की महानता का बखान कर रहा था।

रमेश ने अपने पिता की तस्वीर की ओर देखा। वे एक प्रसिद्ध भाषाविद् थे, जिन्होंने भारत की भाषाई विविधता पर काम किया था। अचानक, उसे लगा जैसे उसके पिता की आवाज उसके कानों में गूंज रही हो: "बेटा, भारत की असली ताकत उसकी विविधता में है।"

इस विचार ने रमेश को झकझोर दिया। वह अपने लैपटॉप पर बैठ गया और एक नया भाषण लिखने लगा। जैसे-जैसे वह लिखता गया, उसके मन में भारत की विविध संस्कृतियों और भाषाओं की तस्वीरें उभरने लगीं।

कॉलेज पहुंचकर, रमेश ने देखा कि वहां पहले से ही हिंदी दिवस के उत्सव की तैयारियां चल रही थीं। रंग-बिरंगे बैनर लगे थे, जिन पर हिंदी के महान लेखकों के उद्धरण लिखे थे। लेकिन रमेश के मन में अब एक अलग ही विचार था।

जब उसकी बारी आई, तो वह मंच पर चढ़ा और गहरी सांस लेकर बोलना शुरू किया:

"मित्रों, आज हम यहां हिंदी दिवस मनाने के लिए इकट्ठा हुए हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में 1600 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं? हर 10-20 किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है। यह हमारी असली ताकत है।"

श्रोताओं में एक सन्नाटा छा गया। रमेश ने आगे कहा, "हिंदी हमारी एक महत्वपूर्ण भाषा है, लेकिन वह अकेली नहीं है। तमिल, जो दुनिया की सबसे पुरानी जीवित भाषाओं में से एक है; बंगाली, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी अमर रचनाएं लिखीं; मलयालम, जिसकी लिपि एक कलाकृति जैसी है; ये सभी हमारी धरोहर हैं।"

रमेश ने अपने दादा-दादी के गांव की याद दिलाई, जहां लोग भोजपुरी बोलते थे। उसने बताया कि कैसे वहां के लोकगीत उसे हमेशा भावुक कर देते थे, भले ही वह उन्हें पूरी तरह से समझ नहीं पाता था।

"और सिर्फ भाषाएं ही नहीं," रमेश ने जारी रखा, "हर भाषा के साथ एक पूरी संस्कृति जुड़ी हुई है। खान-पान, पहनावा, रीति-रिवाज, सब कुछ। जब हम किसी एक भाषा को श्रेष्ठ मानते हैं, तो हम इन सभी विविधताओं को नकार रहे होते हैं।"

उसने श्रोताओं को याद दिलाया कि भारत का संविधान 22 भाषाओं को मान्यता देता है। "लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी भाषाएं कम महत्वपूर्ण हैं। हर भाषा, चाहे वह किसी छोटे से गांव में ही क्यों न बोली जाती हो, हमारी सांस्कृतिक विरासत का एक अमूल्य हिस्सा है।"

रमेश ने अपने दक्षिण भारतीय मित्र राघवन का उदाहरण दिया, जिसने उसे तमिल सिखाने की कोशिश की थी। "मुझे याद है, जब मैंने पहली बार 'वणक्कम' कहा, तो राघवन की आंखें कैसे चमक उठी थीं। उस पल में, हमारे बीच की दूरी कम हो गई थी।"

उसने कहा, "हमें हिंदी का सम्मान करना चाहिए, लेकिन साथ ही अन्य भाषाओं को भी सीखने और समझने की कोशिश करनी चाहिए। क्या आप जानते हैं कि संथाली भाषा में कितने सुंदर लोकगीत हैं? या फिर कश्मीरी कविता की मिठास के बारे में?"

रमेश ने अपने भाषण के अंत में कहा, "आइए, हम आज से एक नया संकल्प लें। हम अपनी मातृभाषा के साथ-साथ कम से कम एक और भारतीय भाषा सीखने का प्रयास करेंगे। यह न सिर्फ हमारे देश की विविधता को समझने में मदद करेगा, बल्कि हमें एक-दूसरे के करीब भी लाएगा।"

जैसे ही रमेश ने अपना भाषण समाप्त किया, हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। कई छात्र और शिक्षक उसके पास आए और उन्होंने कहा कि उन्होंने पहली बार भाषाई विविधता के महत्व को इस तरह से समझा।

उस शाम, रमेश घर लौटा तो उसने देखा कि उसकी मां उसके लिए इंतजार कर रही थीं। उन्होंने गर्व से कहा, "बेटा, तुम्हारे पिता बहुत खुश होते अगर वे आज तुम्हें सुन पाते।"

रमेश मुस्कुराया और कहा, "मां, मुझे लगता है कि वे सुन रहे थे। उनकी सीख ने ही मुझे यह सब समझने में मदद की।"

उस रात, रमेश ने एक नया संकल्प लिया। वह अगले एक साल में कम से कम दो नई भारतीय भाषाएं सीखेगा। उसने सोचा कि वह बंगाली और तमिल से शुरुआत करेगा।

अगले दिन, कॉलेज में एक नई पहल शुरू हुई। छात्रों ने एक 'भाषा मित्र' कार्यक्रम शुरू किया, जहां हर छात्र किसी दूसरे छात्र को अपनी मातृभाषा सिखाता था। रमेश ने देखा कि कैसे यह छोटी सी पहल लोगों को एक-दूसरे के करीब ला रही थी।

कुछ महीनों बाद, कॉलेज ने एक 'भाषा मेला' का आयोजन किया। इसमें देश भर की विभिन्न भाषाओं के स्टॉल लगाए गए थे। छात्र और शिक्षक अलग-अलग भाषाओं में बात कर रहे थे, गाने गा रहे थे, और कविताएं सुना रहे थे।

रमेश ने देखा कि कैसे एक छोटे से विचार ने इतना बड़ा बदलाव ला दिया था। उसने महसूस किया कि भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह लोगों को जोड़ने का एक शक्तिशाली उपकरण भी है।

उस साल के अंत में, जब फिर से हिंदी दिवस आया, तो कॉलेज का माहौल बिलकुल अलग था। इस बार, यह सिर्फ हिंदी का उत्सव नहीं था, बल्कि भारत की सभी भाषाओं का उत्सव था। 

रमेश ने मंच से कहा, "पिछले साल, हमने एक नई यात्रा शुरू की थी। आज, हम सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि अपनी सभी भाषाओं का जश्न मना रहे हैं। यह है असली भारत - विविधता में एकता।"


जैसे-जैसे सूरज ढलने लगा, रमेश ने अपने पिता की तस्वीर की ओर देखा और मुस्कुराया। उसे लगा जैसे उनकी आंखें भी चमक रही हों, मानो वे कह रहे हों, "शाबाश बेटा, तुमने असली भारत को समझ लिया है।"

रमेश जानता था कि यह सिर्फ शुरुआत है। भारत की भाषाई विविधता को समझने और सम्मान देने की यात्रा लंबी है, लेकिन वह इस यात्रा पर चलने के लिए तैयार था। उसे विश्वास था कि एक दिन, हर भारतीय अपनी विविधता पर गर्व करेगा और इसे अपनी सबसे बड़ी ताकत मानेगा।

- आचार्य प्रताप

रविवार, 15 सितंबर 2024

गणेश विसर्जन:: ( गोबर गणेश )

गणेश विसर्जन :- ( गोबर गणेश ) 

यह यथार्थ है कि जितने लोग भी गणेश विसर्जन करते हैं उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं होगा कि यह गणेश विसर्जन क्यों किया जाता है और इसका क्या लाभ है ?? 
हमारे देश में हिंदुओं की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि देखा देखी में एक परंपरा चल पड़ती है जिसके पीछे का मर्म कोई नहीं जानता लेकिन भयवश वह चलती रहती है । 

आज जिस तरह गणेश जी की प्रतिमा के साथ दुराचार होता है , उसको देख कर अपने हिन्दू मतावलंबियों पर बहुत ही ज्यादा तरस आता है और दुःख भी होता है । 

शास्त्रों में एकमात्र गौ के गोबर से बने हुए गणेश जी या मिट्टी से बने हुए गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन का ही विधान है । 

गोबर से गणेश एकमात्र प्रतीकात्मक है माता पार्वती द्वारा अपने शरीर के उबटन से गणेश जी को उत्पन्न करने का । 

चूंकि गाय का गोबर हमारे शास्त्रों में पवित्र माना गया है इसीलिए गणेश जी का आह्वाहन गोबर की प्रतिमा बनाकर ही किया जाता है । 

इसीलिए एक शब्द प्रचलन में चल पड़ा :- "गोबर गणेश" 
इसिलिए पूजा , यज्ञ , हवन इत्यादि करते समय गोबर के गणेश का ही विधान है । जिसको बाद में नदी या पवित्र सरोवर या जलाशय में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया । 

अब आईये समझते हैं कि गणेश जी के विसर्जन का क्या कारण है ???? 

भगवान वेदव्यास ने जब शास्त्रों की रचना प्रारम्भ की तो भगवान ने प्रेरणा कर प्रथम पूज्य बुद्धि निधान श्री गणेश जी को वेदव्यास जी की सहायता के लिए गणेश चतुर्थी के दिन भेजा । 
वेदव्यास जी ने गणेश जी का आदर सत्कार किया और उन्हें एक आसन पर स्थापित एवं विराजमान किया । 
( जैसा कि आज लोग गणेश चतुर्थी के दिन गणपति की प्रतिमा को अपने घर लाते हैं ) 

वेदव्यास जी ने इसी दिन महाभारत की रचना प्रारम्भ की या "श्री गणेश" किया । 
वेदव्यास जी बोलते जाते थे और गणेश जी उसको लिपिबद्ध करते जाते थे । लगातार दस दिन तक लिखने के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन इसका उपसंहार हुआ । 

भगवान की लीलाओं और गीता के रस पान करते करते गणेश जी को अष्टसात्विक भाव का आवेग हो चला था जिससे उनका पूरा शरीर गर्म हो गया था और गणेश जी अपनी स्थिति में नहीं थे । 

गणेश जी के शरीर की ऊष्मा का निष्कीलन या उनके शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए वेदव्यास जी ने उनके शरीर पर गीली मिट्टी का लेप किया । इसके बाद उन्होंने गणेश जी को जलाशय में स्नान करवाया , जिसे विसर्जन का नाम दिया गया । 
विसर्जन का अर्थ ही कोई नहीं जानता , मैं challenge के साथ कहता हूँ कि अपने आपको कट्टर झट्टर बनने वाले और बड़े बड़े आख्यान देने वाले भी विसर्जन का अर्थ नहीं जानते होंगे ।

बाल गंगाधर तिलक जी ने अच्छे उद्देश्य से यह शुरू करवाया पर उन्हें यह नहीं पता था कि इसका भविष्य बिगड़ जाएगा । 
गणेश जी को घर में लाने तक तो बहुत अच्छा है , परंतु विसर्जन के दिन उनकी प्रतिमा के साथ जो दुर्गति होती है वह असहनीय बन जाती है । 

आजकल गणेश जी की प्रतिमा गोबर की न बना कर लोग अपने रुतबे , पैसे , दिखावे और अखबार में नाम छापने से बनाते हैं । 
जिसके जितने बड़े गणेश जी , उसकी उतनी बड़ी ख्याति , उसके पंडाल में उतने ही बड़े लोग , और चढ़ावे का तांता । 
इसके बाद यश और नाम अखबारों में अलग । 

सबसे ज्यादा दुःख तब होता है जब customer attract करने के लिए लोग DJ पर फिल्मी अश्लील गाने और नचनियाँ को नचवाते हैं । 

आप विचार करके हृदय पर हाथ रखकर बतायें कि क्या यही उद्देश्य है गणेश चतुर्थी या अनंत चतुर्दशी का ?? क्या गणेश जी का यह सम्मान है ?? 
इसके बाद विसर्जन के दिन बड़े ही अभद्र तरीके से प्रतिमा की दुर्गति की जाती है । 
वेदव्यास जी का तो एक कारण था विसर्जन करने का लेकिन हम लोग क्यों करते हैं यह बुद्धि से परे है । 
क्या हम भी वेदव्यास जी के समकक्ष हो गए ??? क्या हमने भी गणेश जी से कुछ लिखवाया ? 
क्या हम गणेश जी के अष्टसात्विक भाव को शांत करने की हैसियत रखते हैं ?????????? 

गोबर गणेश मात्र अंगुष्ठ के बराबर बनाया जाता है और होना चाहिए , इससे बड़ी प्रतिमा या अन्य पदार्थ से बनी प्रतिमा के विसर्जन का शास्त्रों में निषेध है । 

और एक बात और गणेश जी का विसर्जन बिल्कुल शास्त्रीय नहीं है । 
यह मात्र अपने स्वांत सुखाय के लिए बिना इसके पीछे का मर्म , अर्थ और अभिप्राय समझे लोगों ने बना दिया । 
आजकल बस छपरी टाइप के जो लौंडे लपाड़े होते हैं , उन्होंने DJ पर नाचने गाने के लिए इसे विकसित कर दिया ।

एकमात्र हवन , यज्ञ , अग्निहोत्र के समय बनने वाले गोबर या मिट्टी के गणेश का ही विसर्जन जो कि अंगुष्ठ के बराबर हो , शास्त्रीय विधान के अंतर्गत आता है । 

प्लास्टर ऑफ paris से बने , चॉकलेट से बने , chemical paint से बने गणेश प्रतिमा का विसर्जन एकमात्र अपने भविष्य और उन्नति के विसर्जन का मार्ग है । 
इससे केवल प्रकृति के वातावरण , जलाशय , जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र , भूमि , हवा , मृदा इत्यादि को नुकसान पहुँचता है ।
 
इस गणेश विसर्जन से किसी को एक अंश भी लाभ नहीं होने वाला । 
हाँ बाजारीकरण , सेल्फी पुरुष , सेल्फी स्त्रियों को अवश्य लाभ मिलता है लेकिन इससे आत्मिक उन्नति कभी नहीं मिलेगी । 

इसीलिए गणेश विसर्जन को रोकना ही एकमात्र शास्त्र अनुरूप है ।
चलिए माना कि आप अज्ञानतावश डर रहे हैं कि इतनी प्रख्यात परंपरा हम कैसे तोड़ दें तो करिए विसर्जन । लेकिन गोबर के गणेश को बनाकर विसर्जन करिए और उनकी प्रतिमा 1 अंगुष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए । 

मुझे पता है मेरे इस पोस्ट से कुछ कट्टर झट्टर बनने वालों को ठेस लगेगी और वह मुझे हिन्दू विरोधी घोषित कर देंगे । 

पर मैं अपना कर्तव्य निभाऊँगा और सही बातों को आपके सामने रखता रहूँगा । 
बाकी का - सोई करहुँ जो तोहिं सुहाई । 

धन्यवाद 

- Shwetabh Pathak 
 ( श्वेताभ पाठक )

शनिवार, 14 सितंबर 2024

हिंदी नहीं हिन्दी

🍂सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट हो कि १४ सितम्बर को हिन्दी-दिवस मनाया जाता है, न कि विश्व हिन्दी-दिवस। आज की तारीख को हिन्दी भारत की राजभाषा के रूप में मान्य हुई। १० जनवरी सन् २००६ को भारत सरकार द्वारा विश्व हिन्दी-दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। इसमें निहित उद्देश्य यह था कि इस प्यारी भाषा को विकसित तथा वैश्विक स्तर पर प्रसारित किया जाए। 

अब आते हैं, हिंदी और हिन्दी शब्दों पर छिड़े महासङ्ग्राम पर । ध्यानाकृष्ट हो कि जिसे आप बिन्दी या बिन्दु कहकर सम्बोधित कर रहे हैं, उसका स्वरूप डॉट(.) , बिन्दी अथवा दशमलव जैसा नहीं और न ही उसका नाम बिन्दी अथवा बिन्दु है। इसका वास्तविक नाम अनुस्वार है, जिसका स्वरूप छोटे से वृत्त सदृश(०) होता है। 

यही लन्तरानी विसर्ग के साथ भी हुई। उसमें भी अनुपात-चिह्न की भाँति दो बिन्दियाँ नहीं बल्कि दो छोटे गोले हैं। कम्प्यूटर महोदय के कोश में यह छोटा सा वृत्त जैसा दिखने वाला चिह्न किसी ने रखा ही नहीं, जिसके कारण पुस्तकों में इनकी जगह बिन्दु(.)ही छपता रहा। बहुतेरे भाषा-शिक्षक विद्यार्थियों को इसका असली स्वरूप बताते ही नहीं, जिस कारण विद्यार्थी से प्रोफेसर बनने तक की यात्रा इसी बिन्दु पर विश्वास करके होती रहती है।

अब प्रश्न उठता है कि 'हिंदी' शुद्ध है या 'हिन्दी?' तो भैया मेरे इसका उत्तर जानने हेतु पाणिनि की शरण लेनी पड़ेगी ,काहे से कि हिन्दी का अपना कोई समृद्ध व्याकरण है ही नहीं! पाणिनि ने व्यञ्जन सन्धि के अन्तर्गत "परसवर्ण सन्धि" की चर्चा की,जिसका सूत्र है-"अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:।" 

इसे हिन्दी भाषा में कहें तो 'यय् प्रत्याहार के परे होने पर अनुस्वार के स्थान पर परसवर्ण होता है।' परसवर्ण का अर्थ है- बाद में जो वर्ण है, उसके सवर्णियों में से आदेश होना। कोई पद हो और उसके मध्य में अनुस्वार(०या •) हो तो अनुस्वार के स्थान पर सामने वाले वर्ण का पञ्चम वर्ण हो जाता है। जैसे-

शां+तः= शान्त:। सं+कल्प= सङ्कल्प ।

इस सूत्र से पहले भी दो सूत्र आते हैं-मोऽनुस्वार: और नश्चापदान्तस्य झलि। इनमें से प्रथम सूत्र पद के अन्त में उपस्थित मकार(म्) के स्थान पर अनुस्वार करता है और दूसरा अपदान्त नकार और मकार के स्थान पर अनुस्वार आदेशित करता है,झल् प्रत्याहार का वर्ण बाद में हो तो। प्रथम सूत्र का उदाहरण-
 हरिम् +वन्दे=हरिं वन्दे।

दूसरे सूत्र के उदाहरण-

आक्रम्+ स्यते= आक्रंस्यन्ते।
यशान्+सि= यशांसि।

ऊपर का सूत्र हिन्दी शब्द पर लागू होगा। इसलिए हिंदी नहीं बल्कि हिन्दी शब्द ही खाँटी माना जाएगा। हिं+द करेंगे तो द के पञ्चम वर्ण न् का ही आगमन होगा और सिद्ध होगा हिन्द। 

हिंदी शब्द को स्वीकारने वाले इसलिए हिन्दी के पक्षधरों से मुठभेड़ कर बैठते हैं क्योंकि उन्होंने किसी हिन्दी व्याकरण की पुस्तक पढ़ ली होगी! कुछ पुस्तकें हैं,जो यह दावा करती हैं कि अनुस्वार अपने आगे आने वाले वर्ण के पञ्चम वर्ण का बोधक होता है।


-अनुज पण्डित

हिंदी दिवस पर कुछ मुक्तक:: 'प्रदग्ध'

हिंदी दिवस पर कुछ मुक्तक :-

हृदय में नेह से उपजी , सरल हिन्दी हमारी है।
सतत शुचि धार गंगे सी , तरल हिन्दी हमारी है।
सनातन ग्रंथ वेदों से, निकलकर ज्ञान की मणिका-
पुरातन वस्त्र में लिपटी, नवल हिन्दी हमारी है।

खिले नित पङ्क में परिमल, कमल हिन्दी हमारी है।
प्रदूषित हो नहीं सकती , विमल हिन्दी हमारी है।
घराना खानदानी है , कभी मीरा कभी तुलसी-
कभी 'दुष्यंत' के घर की , ग़ज़ल हिन्दी हमारी है।

कभी छुप ही नहीं सकती, मुखर हिन्दी हमारी है।
तिमिर में ज्योत्स्ना जैसी, प्रखर हिन्दी हमारी है।
महादेवी अगर हिन्दी! निराला 'प्राण' हैं इसके-
सतत शृंगार 'अनुराधा' , अमर हिन्दी हमारी है।

सुरभि नित घोलती उर में, मलय हिन्दी हमारी है।
युगों से क्रांति के स्वर में, विलय हिन्दी हमारी है।
हज़ारों बोलियों से प्रेम है पर जी नहीं भरता -
जहाँ रुक तृप्त चित होता, निलय हिन्दी हमारी है।

अलंकृत छन्द से, रस से, सुवासित नित्य है हिन्दी।
कथाओं की प्रखरता से, विभासित नित्य है हिन्दी।
सतत अज्ञान का तम नित्य हरती वर्तिका बनकर-
कहाती 'माँ ' सपूतों से, उपासित नित्य है हिन्दी।

छुई जब तूलिका मैंने, मुझे किसलय लगी हिन्दी।
प्रथमतः शब्द जो फूटे, मुझी में लय लगी हिन्दी।
सुभद्रा और दिनकर से, सजा साहित्य का उपवन-
यहाँ हर पुष्प मधुशाला, मुझे मधुमय लगी हिन्दी।

कहीं पाली, कहीं प्राकृत, कहीं अपभ्रंश हिन्दी में।
कहीं खुसरो, कहीं ग़ालिब, कहीं हरिवंश हिन्दी में।
विदेशज और देशज या, कहीं तत्सम कहीं तद्भव -
सरल शाश्वत सरस मधुरिम, अमिय के अंश हिन्दी में।

अचल ये हो नहीं सकती, सतत गतिमान है हिन्दी।
दिवाकर अस्त होते हैं, मगर द्युतिमान है हिन्दी।
कभी 'कामायनी' आई, कभी 'वो तोड़ती पत्थर' -
विरासत में मिली जग को, 'अटल' अभिमान है हिन्दी।

तपी बदलाव की लौ में, कनक हिन्दी हमारी है।
लता के कण्ठ की मधुमय, खनक हिन्दी हमारी है।
जगत की रीत! करना प्रेमिका को चाँद से उपमित -
मगर उस चाँद की आभा, चमक हिन्दी हमारी है।
- जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'