हृदय में नेह से उपजी , सरल हिन्दी हमारी है।
सतत शुचि धार गंगे सी , तरल हिन्दी हमारी है।
सनातन ग्रंथ वेदों से, निकलकर ज्ञान की मणिका-
पुरातन वस्त्र में लिपटी, नवल हिन्दी हमारी है।
खिले नित पङ्क में परिमल, कमल हिन्दी हमारी है।
प्रदूषित हो नहीं सकती , विमल हिन्दी हमारी है।
घराना खानदानी है , कभी मीरा कभी तुलसी-
कभी 'दुष्यंत' के घर की , ग़ज़ल हिन्दी हमारी है।
कभी छुप ही नहीं सकती, मुखर हिन्दी हमारी है।
तिमिर में ज्योत्स्ना जैसी, प्रखर हिन्दी हमारी है।
महादेवी अगर हिन्दी! निराला 'प्राण' हैं इसके-
सतत शृंगार 'अनुराधा' , अमर हिन्दी हमारी है।
सुरभि नित घोलती उर में, मलय हिन्दी हमारी है।
युगों से क्रांति के स्वर में, विलय हिन्दी हमारी है।
हज़ारों बोलियों से प्रेम है पर जी नहीं भरता -
जहाँ रुक तृप्त चित होता, निलय हिन्दी हमारी है।
अलंकृत छन्द से, रस से, सुवासित नित्य है हिन्दी।
कथाओं की प्रखरता से, विभासित नित्य है हिन्दी।
सतत अज्ञान का तम नित्य हरती वर्तिका बनकर-
कहाती 'माँ ' सपूतों से, उपासित नित्य है हिन्दी।
छुई जब तूलिका मैंने, मुझे किसलय लगी हिन्दी।
प्रथमतः शब्द जो फूटे, मुझी में लय लगी हिन्दी।
सुभद्रा और दिनकर से, सजा साहित्य का उपवन-
यहाँ हर पुष्प मधुशाला, मुझे मधुमय लगी हिन्दी।
कहीं पाली, कहीं प्राकृत, कहीं अपभ्रंश हिन्दी में।
कहीं खुसरो, कहीं ग़ालिब, कहीं हरिवंश हिन्दी में।
विदेशज और देशज या, कहीं तत्सम कहीं तद्भव -
सरल शाश्वत सरस मधुरिम, अमिय के अंश हिन्दी में।
अचल ये हो नहीं सकती, सतत गतिमान है हिन्दी।
दिवाकर अस्त होते हैं, मगर द्युतिमान है हिन्दी।
कभी 'कामायनी' आई, कभी 'वो तोड़ती पत्थर' -
विरासत में मिली जग को, 'अटल' अभिमान है हिन्दी।
तपी बदलाव की लौ में, कनक हिन्दी हमारी है।
लता के कण्ठ की मधुमय, खनक हिन्दी हमारी है।
जगत की रीत! करना प्रेमिका को चाँद से उपमित -
मगर उस चाँद की आभा, चमक हिन्दी हमारी है।
- जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
आपके ब्लॉग पर स्थान पाना गर्वित कर रहा है भैया। सदैव स्नेहाशीष बना रहे 🙏
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